आग बहुत-सी बाकी है •• अभिनव शुक्ला

भारत क्यों तेरी साँसों के, स्वर आहत से लगते हैं,
अभी जियाले परवानों में, आग बहुत-सी बाकी है।

क्यों तेरी आँखों में पानी, आकर ठहरा-ठहरा है,
जब तेरी नदियों की लहरें, डोल-डोल मदमाती हैं।

जो गुज़रा है वह तो कल था, अब तो आज की बातें हैं,
और लड़े जो बेटे तेरे, राज काज की बातें हैं,
चक्रवात पर, भूकंपों पर, कभी किसी का ज़ोर नहीं,
और चली सीमा पर गोली, सभ्य समाज की बातें हैं।


कल फिर तू क्यों, पेट बाँधकर सोया था, मैं सुनता हूँ,
जब तेरे खेतों की बाली, लहर-लहर इतराती है।


अगर बात करनी है उनको, काश्मीर पर करने दो,
अजय अहूजा, अधिकारी, नय्यर, जब्बर को मरने दो,
वो समझौता ए लाहौरी, याद नहीं कर पाएँगे,
भूल कारगिल की गद्दारी, नई मित्रता गढ़ने दो,


ऐसी अटल अवस्था में भी, कल क्यों पल-पल टलता है,
जब मीठी परवेज़ी गोली, गीत सुना बहलाती है।


चलो ये माना थोड़ा गम है, पर किसको न होता है,
जब रातें जगने लगती हैं, तभी सवेरा सोता है,
जो अधिकारों पर बैठे हैं, वह उनका अधिकार ही है,
फसल काटता है कोई, और कोई उसको बोता है।


क्यों तू जीवन जटिल चक्र की, इस उलझन में फँसता है,
जब तेरी गोदी में बिजली कौंध-कौंध मुस्काती है।


- अभिनव शुक्ला

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